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बाबा बैजनाथ यात्रा

सितंबर माह में मणिमहेश कैलाश के अप्रतिम दर्शन ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुए थे तो अगली तीर्थ यात्रा का संकल्प झारखंड स्थित बाबा बैजनाथ धाम का निश्चय हुआ और  सितंबर माह में ही यात्रा के लिए ट्रेन द्वारा आने जाने की टिकट की व्यवस्था कर ली गई. हनुमानगढ़ से दिल्ली व दिल्ली से बाबा बैजनाथ देवघर के नजदीकी रेलवे स्टेशन जस्सीडीह का सीट बुक करवाया। सपरिवार दिनांक 26 दिसंबर सायं 6 बजे बठिण्डा के लिए बस से रवाना हुए, बठिंडा से पंजाब मेल से दिल्ली का सफर तय करना था। डबवाली से बठिण्डा मौसमानुसार गहरी धुंध में सफर तय हुआ। यहाँ बताता चलूँ कि जिस ट्रेन में हनुमानगढ़ से दिल्ली की सीट बुक थी वह अवध आसाम एक्सप्रेस 26 दिसम्बर को निरस्त कर दी गई थी। जिसकी सूचना मोबाइल पर मैसेज द्वारा 2 माह पूर्व मिल चुकी थी तो बठिंडा से दिल्ली के लिए पंजाब मेल से बुकिंग की गई। दिल्ली से 27 दिसंबर को 11:45 बजे प्रातः जस्सीडीह का ट्रेन लिया। 28 दिसंबर सुबह 5 बजे जस्सीडीह पहुँचना था पर ट्रेन 12 घंटे देरी से सायं 5 बजे पहुँची। इस प्रकार 47 घंटे का सफर बस व ट्रेन से किया। जस्सीडीह से देवघर की दूरी 8 किमी है ट्रेन से उतरते ही ऑटो ल

पंजाब मेल से गोल्डन टैंपल तक का सफरनामा

भारत में एक AC ट्रेन की शुरुआत 1 सितंबर 1928 को हुई थी जिसका नाम था- पंजाब मेल और 1934 में इस ट्रेन में AC कोच जोड़े गए और इसका नाम फ्रंटियर मेल रख दिया गया.  उस समय में ट्रेनों को फर्स्ट और सेकेंड क्लास में बांटा हुआ था, फर्स्ट क्लास में केवल अंग्रेजों को सफर करने की अनुमति थी। इसी कारण इसे ठंडा रखने के लिए AC बोगी में बदला गया था। अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए ये सिस्टम बनाया था, जिसमें AC की जगह पर बर्फ की सिल्लियों का इस्तेमाल किया जाता था, जो फ्लोर के नीचे रखी जाती थी लेकिन बाद में एसी सिस्टम जोड़ दिया गया। यह ट्रेन 1 सितंबर, 1928 को मुंबई के बैलार्ड पियर स्टेशन से दिल्ली, बठिंडा, फिरोजपुर और लाहौर होते हुए पेशावर (अब पाकिस्तान में) तक शुरू हुई थी, लेकिन मार्च 1930 में इसे सहारनपुर, अंबाला , अमृतसर और लाहौर की ओर मोड़ दिया गया। इस ट्रेन का नाम फ्रंटियर मेल था, जो बाद यानी 1996 में गोल्डन टेम्पल मेल के नाम से संचालित की जाने लगी। फ्रंटियर मेल को ब्रिटिश काल की सबसे लग्जरी ट्रेनों में से एक कहा जाता था। पहले यह भाप से 60 किमी की रफ्तार से चलती थी, लेकिन अब इसे इलेक्ट्रिक से चलाया जा

मणिमहेश यात्रा

*यात्रा मणिमहेश कैलास* भगवदगीता में भगवान श्री कृष्‍ण ने कहा है, 'पर्वतों में मैं हिमालय हूँ।'' यही वजह है कि हिंदू धर्म में हिमालय पर्वत को विशेष स्‍थान प्राप्‍त है।वृहत संहिता में तीर्थ का बड़े ही सुंदर शब्‍दों में वर्णन किया गया है। इसके अनुसार, "ईश्‍वर वहीं क्रीड़ा करते हैं जहाँ झीलों की गोद में कमल खिलते हों और सूर्य की किरणें उसके पत्‍तों के बीच से झाँकती हो, जहाँ हंस कमल के फूलों के बीच क्रीड़ा करते हों...जहाँ प्राकृ‍तिक सौंदर्य की अद्भुत छटा बिखरी पड़ी हो।' हिमालय पर्वत का दृश्‍य इससे भिन्‍न नहीं है। पद्मपुराण में मणिकूट कैलास दर्शन का महत्व वर्णित है।जुलाई-अगस्‍त के दौरान पवित्र मणिमहेश झीलके लिए  तीर्थयात्री जाना शुरू हो जाते हैं। यहीं पर 15 दिनों तक  मेला जन्‍माष्‍टमी के दिन से शुरू होकर राधाष्टमी के दिन समाप्‍त होता है।  पंच कैलासों की यात्रा का अवसर जीवन में सौभाग्यशाली लोगों को ही मिलता है। मन में  कैलास यात्रा का सपना था जो शिव कृपा से ही पूरा हो सकता था। पंच कैलास में से एक मणिमहेश कैलास की यात्रा का विचार माह जून  2023 से कुछ बंधुओं के साथ साझा किय

स्व की पहचान

हमें परम सत्य का अंश मात्र भी समझ सिर्फ तभी आएगा जब हमारी इंद्रियों का भोग समाप्त हो जाएगा। इंद्रियों के वशीभूत रहते हुए सत्य की कल्पना निराधार सी हो जाती है। इंद्रियों से तात्पर्य पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ व छठा मन। समस्त योनियों में मनुष्य योनि श्रेष्ठ है। क्योंकि इसमें भोग के साथ योग भी हो सकता है। और जन्म हुआ है तो भोगना तो है ही। भोगना हैः  कष्ट, आनंद, दुख, सुख, साधन, प्रेम, राग, क्रोध, क्षोभ, शौर्य, दया, अहम, भ्रम,समृद्धि, ऐश्वर्य, गरीबी सब कुछ भोगना है। इंद्रियों को ये सब भोगना है।  किसी को कम किसी को अधिक। किसी को अपने प्रारब्ध को , किसी को अपने वर्तमान को। परंतु भोगना सबको है। सब कुछ जो आप अपने अंतस से निकाल बाह्य जगत को दे रहें हैं। वो सब लौट कर आप में ही समाहित होगा। आप का आज कल से प्रभावित है और कल आज से निर्धारित होगा। जो कल होगा वो कुछ कुछ तय हो चुका है और कुछ कुछ आज तय हो रहा है। जो कल निकल चुका है वो आज वापस आ रहा है और जो आज बन रहा है वो कल फिर वापस आएगा।  मानव जीवन बाह्य दुनिया को अपनी इंद्रियों से ही देखता है और हमारी इंद्रियाँ ही भोगती हैं। इंद्रियाँ ही हमें उलझाए रखती

रावण सदृश शिष्य

।। राम ।।  रावण का कैलाश पर्वत को उठाना, जीवन की बहुत बड़ी सीख है। पुराणों स्मृतियों में हम पाते है, शिवजी ने सबको ज्ञान दिया है, सबको समझाया है । लेकिन उन्होंने रावण को कभी नही समझाया । किसी ने शंकरजी से पूछा - प्रभु आप सबको समझाते है, आप रावण को क्यों नही समझाते ? शंकर जी ने कहा :-क्योंकि मैं रावण को समझता हूं, इसलिए उसे नही समझाता। जो लोग रावण को समझाते है, वह खुद नासमझ हैं।  शंकर जी ने कहा - यह रावण मुझसे जब भी मिलता है, मुझे कहता है, गुरुजी इधर देखिए  शंकर जी बोले - क्या देखूं ?? रावण बोले - देखिए आपके तो 5 सिर है, मेरे तो दस हैं। अब जो खुद को गुरु से दुगना ऐसे ही समझे, उसे गुरु समझाए तो भी क्या समझाए ?? ज्ञान तो श्रद्धावान को मिलता है, अहंकारियों को थोड़ी न ज्ञान प्राप्त हो सकता है । एक किवदंती के अनुसार बार रावण गया कैलाश और कैलाश को ही सिर पर उठा लिया, कैलाश में हलचल मच गई । पार्वती जी ने पूछा - हे देवाधिदेव यह क्या हो रहा है ? शंकर जी ने कहा - शिष्य आया है ...  पार्वती ने पूछा - तो इतनी हलचल क्यो है ??  शंकर जी कहा - रावण जैसे शिष्य आएंगे, तो हलचल ही मचेगी । किसी ने रावण को पूछा

विधि का विधान कोई नहीं टाल सकता

विधि का विधान कोई टाल नहीं सकता:भगवान विष्णु गरुड़ पर बैठ कर कैलाश पर्वत पर गए। द्वार पर गरुड़ को छोड़ कर खुद शिव से मिलने अंदर चले गए। तब कैलाश की अपूर्व प्राकृतिक शोभा को देख कर गरुड़ मंत्रमुग्ध थे कि तभी उनकी नजर एक खूबसूरत छोटी सी चिड़िया पर पड़ी। चिड़िया कुछ इतनी सुंदर थी कि गरुड़ के सारे विचार उसकी तरफ आकर्षित होने लगे।उसी समय कैलाश पर यम देव पधारे और अंदर जाने से पहले उन्होंने उस छोटे से पक्षी को आश्चर्य की द्रष्टि से देखा। गरुड़ समझ गए उस चिड़िया का अंत निकट है और यमदेव कैलाश से निकलते ही उसे अपने साथ यमलोक ले जाएँगे।गरूड़ को दया आ गई। इतनी छोटी और सुंदर चिड़िया को मरता हुआ नहीं देख सकते थे। उसे अपने पंजों में दबाया और कैलाश से हजारो कोश दूर एक जंगल में एक चट्टान के ऊपर छोड़ दिया, और खुद बापिस कैलाश पर आ गया।आखिर जब यम बाहर आए तो गरुड़ ने पूछ ही लिया कि उन्होंने उस चिड़िया को इतनी आश्चर्य भरी नजर से क्यों देखा था। यम देव बोले "गरुड़ जब मैंने उस चिड़िया को देखा तो मुझे ज्ञात हुआ कि वो चिड़िया कुछ ही पल बाद यहाँ से हजारों कोस दूर एक नाग द्वारा खा ली जाएगी। मैं सोच रहा था कि

'रत्ती' का रहस्य

"रत्ती" शब्द आपने बोला भी होगा। बोला नहीं तो सुना जरूर होगा। कुछ मुहावरे व लोकोक्तियों का रूप ले चुका है यह 'रत्ती' । जैसे- रत्ती भर भी परवाह नहीं, रत्ती भर भी शर्म नहीं, रत्ती भर भी अक्ल नहीं...!!  आज हम  'रत्ती' की वास्तविकता जानेंगे कि यह आम बोलचाल में आया कैसे? आपको आश्चर्य होगा कि रत्ती एक प्रकार का पौधा होता है, जो प्रायः पहाड़ों पर पाया जाता है। इसके मटर जैसी फली में लाल-काले रंग के दाने (बीज) होते हैं, जिन्हें रत्ती कहा जाता है। प्राचीन काल में जब मापने का कोई सही पैमाना नहीं था तब सोना, जेवरात का वजन मापने के लिए इसी रत्ती के दाने का इस्तेमाल किया जाता था। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि इस फली की आयु कितनी भी क्यों न हो, लेकिन इसके अंदर स्थापित बीजों का वजन एक समान ही 121.5 मिलीग्राम (एक ग्राम का लगभग 8वां भाग) होता है। तात्पर्य यह कि वजन में जरा सा एवं एक समान होने के विशिष्ट गुण की वजह से, कुछ मापने के लिए जैसे रत्ती प्रयोग में लाते हैं। उसी तरह किसी के जरा सा गुण, स्वभाव, कर्म मापने का एक स्थापित पैमाना बन गया यह "रत्ती" शब्द।